Taza Khabar

ईरान और इजरायल के बीच सीधी जंग, अतीत में साझा दुश्मन को हराने दोनों देश एक-दूसरे से हाथ भी मिलाया था

नई दिल्ली

मिडिल ईस्ट में तनाव चरम पर पहुंच गया है। ईरान ने मंगलवार को इजरायल पर 200 से ज्यादा मिसाइलें दागीं है जिनमें हाइपरसोनिक हथियार भी शामिल हैं। अब इजरायल ने भी कसम खाई है कि ईरान इस हमले की कीमत चुकाएगा। हालांकि दोनों देशों के बीच रिश्ते हमेशा से खराब नहीं थे। यह सुनने में भले ही अकल्पनीय लगे लेकिन इजरायल और ईरान ने एक साझा दुश्मन से लड़ने के लिए अमेरिका की मदद से हाथ मिलाया था। 1960 के दशक में इजरायल और ईरान दोनों का एक साझा दुश्मन था इराक। जहां इजरायल अरब देशों के खिलाफ संघर्ष में उलझा हुआ था वहीं शाह के नेतृत्व में ईरान के लिए सुरक्षा और क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को देखते हुए इराक एक सीधा खतरा था। इसके बाद इस समय की सबसे गुप्त साझेदारी के लिए एक आधार तैयार हुआ।

इस साझेदारी में इज़राइल की खुफिया एजेंसी मोसाद और ईरान की सीक्रेट पुलिस SAVAK शामिल थे। दोनों ने इराकी शासन के खिलाफ कुर्द विद्रोहियों को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इराक के अरब नेतृत्व की कमजोरी के रूप में देखे जाने वाले ये कुर्द समूह इराकी सरकार को अंदर से कमजोर करने के लिए जरूरी थे। खुफिया गठबंधन कोड-नाम ट्राइडेंट के गठन के बाद इज़राइल और ईरान के बीच के रिश्ते नई ऊंचाइयों पर पहुंच गए थे जिसमें तुर्की भी शामिल था। 1958 की शुरुआत में ट्राइडेंट की मदद से इन तीन समूहों ने कई खुफिया जानकारियों का आदान-प्रदान किया। जैसे-जैसे संबंध परिपक्व होते गए इज़राइल और ईरान और भी करीब होते गए।

शाह की महत्वाकांक्षाएं और इज़राइल का प्रभाव

ईरान के शाह मोहम्मद रजा पहलवी न केवल साझा भू-राजनीतिक हितों से प्रेरित थे बल्कि अमेरिका में इज़राइल के प्रभाव से भी प्रेरित थे। शाह ने इजराइल को अमेरिका के साथ संबंधों को सुधारने के लिए एक साधन के रूप में देखा। खासकर कैनेडी प्रशासन द्वारा उनके शासन के बारे में चिंता व्यक्त करने के बाद यह और जरूरी हो गया था। इजराइली-ईरानी संबंध ईरान की पश्चिम के साथ खुद को जोड़ने की रणनीति का हिस्सा बन गए। नतीजतन 1960 के दशक के मध्य तक तेहरान में एक स्थायी इजराइली प्रतिनिधिमंडल की स्थापना हुई जो एक दूतावास के रूप में कार्य करने लगी। हालांकि इस संबंध में भी कुछ जटिलताएं थी। शाह अरब दुनिया में व्यापक इजराइल-विरोधी भावना से अवगत थे। उन्होंने ईरान के इजराइल के साथ संबंधों के सार्वजनिक तौर पर इनकार किया।

इराक के खिलाफ मिलकर काम करने में दोनों देशों का फायदा

ईरान में 1979 की इस्लामी क्रांति ने देश के राजनीतिक परिदृश्य को काफी हद तक बदल दिया और इसे एक इजराइल विरोधी इस्लामी गणराज्य में बदल दिया। फिर भी अयातुल्ला खोईमेनी के सत्ता में आने के बाद भी नए शासन ने इजराइल के साथ गुप्त सहयोग जारी रखा। जैसे-जैसे ईरान-इराक युद्ध (1980-1988) आगे बढ़ा दोनों देशों ने सद्दाम हुसैन के इराक के खिलाफ़ मिलकर काम करने में ही फायदा देखा। इज़राइल ने भी ईरान की मदद करने में एक अच्छा अवसर देखा। अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ने इराकी सेना की आपूर्ति की थी और यह एक जोखिम था। इज़राइल द्वारा ईरान को हथियारों की खेप भेजना, खास कर से प्रधानमंत्री मेनाचेम बेगिन द्वारा 1980 में सैन्य उपकरणों की बिक्री को मंज़ूरी दिए जाने के बाद इराक की ताकत को कमज़ोर करने का एक सोचा-समझा फ़ैसला था। ये गुप्त हथियार सौदे अमेरिकी नीति के बावजूद किए गए जिसमें तेहरान में बंधक बनाए गए अमेरिकी लोगों की रिहाई तक ईरान को सैन्य सहायता देने पर रोक लगाई गई थी। इज़राइली सैन्य सहायता के बदले में, खोईमेनी के शासन ने बड़ी संख्या में ईरानी यहूदियों को इज़राइल या अमेरिका में रहने की अनुमति दी।

ऑपरेशन फ्लावर

इजरायल-ईरानी साझेदारी पारंपरिक हथियार सौदों से आगे तक पहुंच गई थी। सबसे महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक ऑपरेशन फ्लावर था जो एक गुप्त करोड़ों डॉलर की योजना थी जो 1977 में शाह के शासन के दौरान शुरू हुई थी। इस सौदे के तहत ईरान ने 1978 में इजरायल को 260 मिलियन डॉलर का तेल भेजकर एक बड़ा अग्रिम भुगतान किया जैसा कि 1986 की न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट में दावा किया गया था। मिसाइल कार्यक्रम पर काम 1979 में इस्लामिक क्रांति तक जारी रहा जिसके बाद खोमेनेई के शासन ने अचानक सहयोग रोक दिया। अक्टूबर 1980 में जब ईरान ने इराक के खिलाफ युद्ध छेड़ा था तब इजरायल ने गुप्त रूप से ईरान को अमेरिकी निर्मित एफ-4 लड़ाकू विमानों के लिए 250 अतिरिक्त टायर भी दिए थे।

दुश्मनी की शुरुआत

1990 के दशक तक इज़राइल और ईरान के बीच सहयोग का युग लगभग समाप्त हो गया था। भू-राजनीतिक कारण जैसे अरब समाजवाद, सोवियत प्रभाव और इराक का खतरा, जो कभी उन्हें एकजुट करते थे गायब हो गए थे जिससे सहयोग के लिए वजहें नहीं बची थी। इसके बाद ईरान ने इजरायल विरोधी विचारधारा को अपनाया। ईरान ने इजरायल के साथ संघर्ष में हिजबुल्लाह और हमास जैसे समूहों का समर्थन किया है। 2000 के दशक की शुरुआत में ईरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद का चुनाव, नरसंहार से इनकार और इजरायल के खिलाफ आक्रामक बयानबाजी ने तनाव को और बढ़ा दिया। इसके बाद ईरान इस क्षेत्र में इजरायल का सबसे प्रमुख विरोधी बन गया। अब मिडिल ईस्ट के ये दो देश पूरी तरह युद्ध की कगार पर हैं।

Related Articles