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45 साल बाद पूर्व प्रधानमंत्री भुट्टो की फांसी को गलत माना

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, सुनवाई संविधान के अनुरूप नहीं हुई थी

इस्लामाबाद । पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को 1979 में हत्या से जुड़े मामले में फांसी दी गई थी। लेकिन 45 साल बाद पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व पीएम भुट्टो की फांसी को लेकर बड़ी टिपप्णी दी है।
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि पूर्व प्रधानमंत्री भुट्टो के खिलाफ चलाए गए मुकदमे में हुई सुनवाई संविधान के अनुरूप नहीं थी। पाकिस्तान के चीफ जस्टिस काजी फैज ईसा की अगुवाई में नौ जजों की पीठ ने ये टिप्पणी पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की ओर से दायर रिफरेंस पर की है।
दरअसल जरदारी ने दो अप्रैल 2011 को पाकिस्तानी संविधान के अनुच्छेद 189 के तहत पूर्व प्रधानमंत्री भुट्टो को दिए गए मृत्युदंड पर सुप्रीम कोर्ट की राय मांगी थी। जरदारी ने याचिका में कहा था कि 1979 के फैसले पर फिर से गौर होना चाहिए।
रिपोर्ट के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि हमारे न्यायिक इतिहास में इसतरह के कुछ मामले हुए हैं, जिन्होंने आमजन में ऐसी धारणा बनी है कि डर से या फिर पक्षपात करने से न्याय प्रभावित होता है। जब तक हम अतीत में की गई अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करते, तब तक हम खुद में सुधार नहीं कर सकते।
चीफ जस्टिस ने कहा कि इस रेफरेंस से सैन्य तानाशाह जनरल जिया उल हक के शासन में भुट्टो को मृत्युदंड दिए जाने के मामले पर फिर से गौर करने का मौका मिला है।
वहीं पूर्व पीएम भुट्टो के पोते बिलावल भुट्टो जरदारी ने अदालत के फैसले को ऐतिहासिक बताया है। उन्होंने कहा है कि 44 साल बाद देश की सुप्रीम कोर्ट के फैसले से देश को सही राह में आगे बढ़ने में मदद मिलेगी। 44 साल पुराने उस फैसले के दाग से इस मुल्क के लोगों को अदालत पर विश्वास करने में मुश्किल हुई। लोगों की धारणा रही कि अगर इस मुल्क के प्रधानमंत्री को न्याय नहीं मिला तब हमें कैसे मिलेगा।
क्या है मामला?
पाकिस्तान में 1979 में पूर्व पीएम भुट्टो को हत्या के मामले में उकसाने के लिए दोषी मनाकर फांसी की सजा दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय बेंच के चार जजों ने लाहौर हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था, जबकि तीन ने जुल्फिकार अली भुट्टो को आरोपों से बरी कर दिया था। उसके बाद 4 अप्रैल, 1979 को भुट्टो को फांसी दे दी गई थी। हालांकि, भुट्टो का परिवार आज भी न्याय की मांग कर रहा है। कई लोगों का मानना है कि यह तत्कालीन सैन्य तानाशाह जनरल हक के दबाव में लिया गया फैसला था, जिन्होंने 1977 में भुट्टो की सरकार को गिरा दिया था।

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