Uncategorized

ठगा-सा महसूस कर रहे हैं भोपाल के गैस पीड़ित

अजय बोकिल, वरिष्ठ पत्रकार
      केन्द्र ने अपनी याचिका में कहा था कि कोर्ट बहुराष्ट्रीय कंपनी (पूर्व की यूनियन कार्बाइड और अब की डाऊ केमिकल्स) को गैस पीड़ितों को 7844 करोड़ रुपए का अतिरिक्त मुआवजा चुकाने का आदेश दे। हालांकि, इस फैसले के बाद भी गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठनों ने हार नहीं मानी है, लेकिन आगे राहत मिलने की संभावना कम है।
विश्व की भीषणतम औद्योगिक त्रासदी भोपाल गैस कांड के शिकार भोपाल के गैस पीड़ितों को ज्यादा मुआवजा मिलने की उम्मीदों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने घड़ो पानी डाल दिया है। वो एक बार फिर खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं। केन्द्र सरकार द्वारा बदले हालात में भोपाल गैस कांड के पीड़ितों को ज्यादा मुआवजा दिलवाने के सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट में 15 साल पहले दायर याचिका को सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने यह कहकर खारिज कर दिया कि गैस पीड़ितों को पहले ही 6 गुना ज्यादा मुआवजा दिया जा चुका है।
केंद्र की याचिका
केन्द्र ने अपनी याचिका में कहा था कि कोर्ट बहुराष्ट्रीय कंपनी (पूर्व की यूनियन कार्बाइड और अब की डाऊ केमिकल्स) को गैस पीड़ितों को 7844 करोड़ रुपए का अतिरिक्त मुआवजा चुकाने का आदेश दे। हालांकि, इस फैसले के बाद भी गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठनों ने हार नहीं मानी है, लेकिन आगे राहत मिलने की संभावना कम है।
ऐसा लगता है कि भले ही केन्द्र की मोदी सरकार ने भी याचिका में की गई मांग को जायज माना, लेकिन इसको लेकर सर्वोच्च अदालत में गैस पीड़ितों का पक्ष शायद बहुत मजबूती से नहीं रखा गया, जिसकी कि गैस पीड़ितों को अपेक्षा थी। जहां तक इस मुद्दे के राजनीतिक हानि-लाभ का प्रश्न है तो इसका कोई खास असर पड़ने वाला नहीं है, क्योंकि मंडल-कमंडल की राजनीति के बाद गैस पीड़ितों के पुनर्वास का मुद्दा लगभग हाशिए पर चला गया था।
दूसरे, विधानसभा सीटों के परिसीमन के बाद भोपाल के गैस पीड़ित तीन अलग-अलग विस सीटों में बंट चुके हैं। शहर का जनसांख्यिकीय चरित्र भी बीते 39 सालों में काफी बदल गया है। बावजूद इन सबके गैस पीड़ितों का मुद्दा गंभीर मानवीय संवेदना से जुड़ा है, वो ये कि क्या औद्योगिक त्रासदियां मनुष्य की कीमत पर होने दी जाएंगी? क्या इसकी कोई मुआफिक सजा नहीं है? ऐसे में सर्वोच्च अदालत के फैसले में मानवीय संवेदना से ज्यादा कानूनी और व्यावहारिक पक्ष ज्यादा हावी दिखता है।
हजारों लोगों की मौत 
गौरतलब, है कि भोपाल गैस कांड 2 और 3 दिसंबर 1984 की दर्मियानी रात को तत्कालीन यूनियन कार्बाइड कंपनी के कीटनाशक प्लांट से मिथाइल आइसोसाइनेट गैस के रिसाव के रूप में हुआ था। लोग समझ ही नहीं पा रहे थे कि यह हो क्या रहा है। यह गैस हवा के साथ तेजी से फैलती गई और इसके फेंफड़ो में जाने से हजारों लोगों की मौत हुई। सैंकड़ो लोग उसके आफ्टर इफेक्ट के कारण मरे। अभी भी कई लोग जहरीली गैस के दुष्प्रभावों से जूझ रहे हैं। हालांकि, गैस कांड में मरने वालों का आधिकारिक आंकड़ा 3500 लोगों का है। लेकिन हकीकत में मरने वालों की संख्या इसके चार गुना ज्यादा बताई जाती है।
इस हादसे के बाद कई जनसंगठनों ने इसको लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनी को जिम्मेदार ठहराने, दोषियों को सजा देने तथा पीड़ितों के समुचित इलाज और पुनर्वास के लिए मोर्चा खोल दिया। यह मामला अदालत में गया और जिला अदालत ने अपने ऐतिहासिक फैसले में यूनियक कार्बाइड को 47 करो़ड़ डॉलर (भारतीय रूपए में तत्कालीन दर से 715 करोड़ रू.) का मुआवाजा भारत सरकार को देने को कहा, जिसे गैस पीड़ितों को वितरित किया जाना था।
इस हिसाब से कोर्ट में मामला जारी रहते गैस पीड़ितों को 2 सौ रू. प्रतिमाह की अंतरिम राहत भी मुआवजे के दावों का अंतिम फैसला होने तक दी गई। इस बीच मुआवजे की दरें तय की गईं, वो अपेक्षित मुआवजे की तुलना में कम ही थीं। उल्टे इसमें कई फर्जी लोगों द्वारा मुआवजा लेने के कई मामले भी सामने आए। जो भी हो, गैस दावा अदालतों द्वारा तयशुदा दरों पर मुआवजे के अवॉर्ड पारित किए गए।
अगली पीढ़ी तक दुष्परिणाम
दूसरी तरफ गैस पीड़ितों की संख्या बढ़ती ही गई। कई तो स्थायी रूप से अपंग हो गए तो कई मामलों में अगली पीढ़ी में भी इसके दुष्परिणाम सामने आए। अदालत के फैसले के मुताबिक भोपाल में गैस पीड़ितों के लिए अलग अस्पताल खोले गए, जिनमें से अधिकांश अब बदहाल हैं। गैस पीड़ितों की ओर से यह आवाज बार-बार उठती रही कि यूनियन कार्बाइड और भारत सरकार के बीच समझौते के तहत जो मुआवजा दिया गया, वो नाकाफी है और उनकी समस्याएं जटिल और बहुआयामी हैं।
इसी के तहत डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए 2 सरकार ने 2010 में सुप्रीम कोर्ट में क्यूरेटिव (सुधारात्मक) याचिका दाखिल कर गैस पीड़ितों को बहुराष्ट्रीय कंपनी डाऊ केमिकल्स से 7 हजार 844 करोड़ रुपए का अतिसरिक्त मुआवजा दिलवाने की मांग की। केंद्र सरकार ने अपनी याचिका में कहा था कि 1989 में जब सुप्रीम कोर्ट ने मुआवजा तय किया था, तब 2.05 लाख पीड़ितों को ध्यान में रखा गया था। बीते कई वर्षों में गैस पीड़ितों की संख्या बढ़कर 5.74 लाख से अधिक हो चुकी है। ऐसे में मुआवजे की राशि भी बढ़नी चाहिए।
इसका लाभ भोपाल के हजारों गैस पीड़ितों को मिलेगा। इसी याचिका पर कालांतर में केन्द्र की मोदी सरकार ने भी याचिका के समर्थन में अपना पक्ष रखा। जिसके बाद गैस पीड़ितों को बेहतर मुआवजे और अपना इलाज ठीक से होने की आस बंधी, लेकिन 14 मार्च को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली 5 जजों की बेंच ने केंद्र की याचिका पर कहा कि बिना पुनर्विचार की याचिका दाखिल किए सीधे क्यूरेटिव याचिका दाखिल करना तकनीकी रूप से गलत है। साथ ही जजों ने यह भी कहा कि क्यूरेटिव याचिका समझौते के 21 साल बाद दाखिल हुई थी।
किसी मसले को हमेशा के लिए खुला नहीं रखा जा सकता। खंडपीठ ने कहा कि अदालत की नजर में पूर्व में दी गई मुआवजा राशि पर्याप्त थी। अदालत ने इस मामले में केन्द्र सरकार पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि अगर सरकार को ज़्यादा मुआवजा जरूरी लगता है तो उसे खुद देना चाहिए था। ऐसा न करना सरकार की लापरवाही थी। उल्टे कोर्ट ने सरकार को इस बात के लिए फटकार भी लगाई कि उसने इतने सालों में गैस कांड पीड़ितों के लिए बीमा पॉलिसी तैयार नहीं की।
जबकि इस बारे में सरकार अदालत को अपना हलफनामा दे चुकी थी। कोर्ट ने कहा कि वैसे भी गैस पीड़ितों को 6 गुना ज्यादा मुआवजा दिया जा चुका है। ऐसे में समझौते को 3 दशक से भी ज़्यादा समय बीत जाने के बाद कंपनी को नए सिरे से भुगतान के लिए नहीं कहा जा सकता।”उधर डाउ केमिकल्स के वकील हरीश साल्वे ने तर्क दिया कि समझौते को फिर से खोलने का कोई औचित्य नहीं है। कंपनी पूर्व में दिए गए मुआवजे के अलावा 1 रूपया भी अतिरिक्त नहीं देगी। 
इस बारे में गैस पीड़ित संगठनों का दावा है कि जहरीली गैस के कारण मौतों का आंकड़ा 25 हजार से अधिक हो चुका है। यूका फैक्ट्री के पास बसे जेपी नगर में गैस के कारण इतनी मौतें हुई कि लोगों ने उसका नाम ही विधवा कॉलोनी रख दिया। उधर गैस त्रासदी के मुख्य आरोपी यूनियन कार्बाइड के मालिक वारेन एंडरसन की बगैर कोई सजा पाए ही मौत हो गई। गैस पीड़ितों का मानना है कि उनके साथ एक बार फिर धोखा हुआ है। ज्यादा मुआवजे और बेहतर इलाज की उम्मीदों पर पानी फिर गया है। हक पाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदाई नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

Related Articles