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पर्वतीय जलवायु के लिए वैश्विक विमर्श की जरुरत
सड़क सुरंग निर्माण से हो रहे पहाड़ों के क्षरण पर अंकुश जरुरी
नई दिल्ली । वैश्विक जलवायु पर दुनिया के सभी देशों को विचार करने की जरूरत है। क्योंकि पर्वतीय जलवायु की सेहत सीधे तौर पर वैश्विक जलवायु से जुड़ी हुई है। भारत सहित दुनिया के सभी पहाड़ी देशों में पहाड़ों के धीरे-धीरे खत्म होने से पैदा हो रही समस्याओं और चुनौतियों पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है। हर देश की अलग-अलग समस्याएं हैं। जहां पर्वतों का क्षरण तेजी से हो रहा है, उन देशों में अधिक सतर्कता की जरूरत है। नए विकास ने मानवता को अनेक सहूलियतें प्रदान की हैं, तो इस दौरान कई नुकसान भी हुए हैं। विज्ञान की उन्नति ने जिंदगी का मकसद और शैली बदल दी है। इसी के साथ लोगों में संसाधनों को इकट्ठा करने और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की आदत हवस में बदल गई है। जंगल, पानी, वनस्पतियों, खनिज पदार्थों के साथ पहाड़ों के बेतहाशा दोहन से प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है, जो अनेक समस्याओं का कारण बन गया है। धरती का सत्ताईस फीसद हिस्सा पहाड़ों से ढंका हुआ है। दुनिया की पंद्रह फीसद आबादी पहाड़ों पर रहती है और दुनिया के लगभग आधे जैव विविधता वाले स्थान भी पहाड़ों पर हैं। दुनिया की आधी आबादी की रोजमर्रा की जरूरत का पानी पहाड़ उपलब्ध कराते हैं। कृषि, बागवानी, पीने का पानी, स्वच्छ ऊर्जा और दवाओं की आपूर्ति पहाड़ों के जरिए होती है।
दुनिया के अस्सी फीसद भोजन की आपूर्ति करने वाली बीस पौधों की प्रजातियों में से छह की उत्पत्ति और विविधता पहाड़ों से जुड़ी है। आलू, जौ, मक्का, टमाटर, ज्वार और सेब जैसे अत्यंत उपयोगी आहारों की उत्पत्ति के केंद्र पहाड़ हैं। हजारों नदियों का स्रोत पहाड़ हैं। इसलिए पहाड़ों को बचाकर हम नदियों को भी बचाएंगे।
पहाड़ों के संरक्षण को लेकर विश्व का ध्यान साल 1992 में गया, जब पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में एजंडा 21 के अध्याय 13 ‘नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र का प्रबंधन: सतत पर्वतीय विकास’ पर जोर दिया गया। इस तरह के व्यापक समर्थन के साथ संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2002 को अंतरराष्ट्रीय पर्वत वर्ष घोषित किया। अंतरराष्ट्रीय पर्वत दिवस मनाने की परंपरा वर्ष 2003 में शुरू होने के बाद पिछले दस सालों में पर्वतीय पर्यटन तेजी से बढ़ा है। भारत में भी इसका असर देखा जा रहा है।
भारत में विकास ने पर्वतों और जंगलों को काफी नुकसान पहुंचाया है। अरावली की पहाड़ियों को जिस तरह वर्षों से समाप्त करने के लिए माफिया लगे हुए हैं, उससे बहुत बड़े पैमाने पर जैव विविधता और खनिजों को खत्म करने का काम हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से केंद्र और राज्य सरकारों ने सख्त कदम उठाए हैं, जिससे माफिया पर नकेल कसी जा सकी है, लेकिन छोटी पहाड़ियों, हिमालयी क्षेत्र में आने वाले छोटे और बड़े पहाड़ों को विकास का मुहरा जिस तरह से बनाया गया, उससे पिछले तीस-चालीस वर्षों में जितना नुकसान हुआ उतना पिछले पांच सौ वर्षों में नहीं हुआ।पहाड़ों में विस्फोट, भारी मशीनों का इस्तेमाल और विकास के लिए बनाई जा रहीं सुरंगें, राजमार्ग और सड़कों से कई छोटी पहाड़ियों का अस्तित्व ही खत्म होने को है। हिमाचल प्रदेश के 11-12 जिलों में कुदरत के कहर से पहाड़ का पोर-पोर धंस रहा है। बहुत बड़ी आबादी का नुकसान हुआ है। इसी तरह असम, झारखंड, उत्तराखंड, राजस्थान, महाराष्ट्र और कर्नाटक में भी पहाड़ों के साथ खूब अनर्थ हुआ है। इस क्षरण को रोकने के लिए सरकारों, पर्यावरण संरक्षकों और आम लोगों को आगे आना होगा।