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राज्यपाल की भूमिका और अधिकार..

लेखक : संजय सक्सेना वरिष्ठ पत्रकार एवं संपादक दैनिक सांध्य प्रकाश 
इन दिनों देश में राज्यपाल की भूमिका काफी चर्चा में है, और कोर्ट में भी इस पर बहस चल रही है। सर्वोच्च न्यायालय में महाराष्ट्र के मामले में याचिका उद्धव ठाकरे की थी और मुद्दा एकनाथ शिंदे को सीएम पद की शपथ दिलाने का था। ठाकरे के वकील कपिल सिब्बल ने तत्कालीन गवर्नर भगत सिंह कोश्यारी को कटघरे में खड़ा किया, पर बिना नाम लिए। उनकी दलील थी कि शिंदे की विधानसभा सदस्यता खत्म करने की प्रक्रिया पूरी होने से पहले गवर्नर ने शपथ कैसे दिलाई। न्यायालय ने भी सहमति जताई और कहा कि राज्यपाल राजनीति में फंस रहे हैं। यह वाकई बहुत महत्वपूर्ण मामला है और इस पर न केवल बहस होना चाहिए, अपितु एक गाइड लाइन भी सार्वजनिक होना चाहिए। 
यूं तो देश की सर्वोच्च अदालत राज्यपाल के फैसलों को पलटती रही है। ऐसा आम तौर पर सरकार गिराने और बनाने के दावों के दौरान लिए गए फैसले होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 159 के मुताबिक राज्यपाल हमारे संविधान के संरक्षक हैं। लेकिन होता क्या है? वो जिस सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के तौर पर नियुक्त होते हैं, उसी के सिपहसालार बन जाते हैं। संविधान संरक्षक से इतर सत्ता की सियासत का मुंह ताक रहे राज्यपालों को सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दस वर्षों में लगातार आइना दिखाया है। 
2016 में हरीश रावत सरकार को हटाने का फैसला पलटना आपको याद होगा। इसके बाद 2018 में कर्नाटक का रुख कीजिए। राज्यपाल वजू भाई ने बीएस येदियुरप्पा को सीएम की शपथ दिलाई और बहुमत साबित करने के लिए 15 दिनों का समय दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए 24 घंटे के भीतर फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया। इस पर येदियुरप्पा ने वोट कराए बिना ही इस्तीफा दे दिया। राज्यपाल के सम्मान और संवैधानिक पदवी को देखते हुए अनुच्छेद 361 के तहत राष्ट्रपति की तरह के अधिकार मिले हुए हैं। उदाहरण के तौर पर, देश की किसी अदालत के प्रति वो उत्तरदायी नहीं हैं। ऐसे में अपने फैसलों से किरकिरी कराने का रिवाज इस पद की गरिमा को कुएं में ढकेल रहा है। प्रश्न तो उठता है, क्या राज्यपाल जेबी वीटो का इस्तेमाल कर सकता है?
पहले कुछ पुराने पन्ने उलटते हैं। 1986 का वो वाकया, जब जेबी वीटो को संविधान से बाहर घर-घर तक पहुंचा दिया। राजीव गांधी सरकार इंडियन पोस्टल ऑफिस अमेंडमेंट बिल लाई। संसद ने इसे पास कर दिया। लेकिन कानून बनने के लिए राष्ट्रपति की सहमति जरूरी थी। पर, राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने जेबी वीटो का इस्तेमाल करते हुए इस पर कोई फैसला ही नहीं किया। और ये बिल कभी कानून नहीं बन सका। 1989 में राजीव गांधी की सरकार चली गई। दरअसल इस कानून में लोगों की बातचीत, पत्राचार को सर्विलांस के दायरे में लाने का प्रावधान था। लिहाजा निजता का अधिकार खतरे में था। और संविधान के संरक्षक ने अपना धर्म निभाया। ये तो एक पहलू है। लेकिन क्या ऐसा हो रहा है? और क्या राज्यपाल को भी जेबी वीटो का अधिकार है? 
झारखंड के राज्यपाल से हटाए गए रमेश बैस को देखिए। वहां के सीएम हेमंत सोरेन ऑफिस ऑफ प्रॉफिट मामले में फंसे हुए हैं। सीएम रहते खदान अपने नाम कराने का आरोप है। कोर्ट से अलग जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत चुनाव आयोग ने इसकी सुनवाई की। हेमंत सोरेन ने अपनी दलील दी। अंत में चुनाव आयोग ने 25 अगस्त, 2022 को अपना फैसला बंद लिफाफे में गवर्नर को भेज दिया। लेकिन राज्यपाल रमेश बैस ने इसे खोला ही नहीं। जब 12 फरवरी को वो रांची से विदा हो रहे थे, तब पत्रकारों ने इस पर सवाल पूछा तो उन्होंने कहा – मैंने देखा कि झारखंड में सरकारें ज्यादा टिकती नहीं हैं और मैं राज्य के विकास में बाधक नहीं बनना चाहता था। 
यही सवाल तमिलनाडु में उठा जब दो मामलों में राज्यपाल ने विधानसभा से पारित बिल को लटका दिया। विधानसभा के स्पीकर एम अप्पावू ने ऑल इंडिया प्रिजाइडिंग ऑफिसर्स कॉन्फ्रेंस में ये मामला उठाया। एक तो राज्य में नीट परीक्षा नहीं कराने का विधेयक था और दूसरा राजीव गांधी के हत्यारों को छोडऩे का।
संविधान के अनुच्छेद 200 में वीटो पॉवर पर राज्यपाल के अधिकारों का जिक्र है। संदर्भ में जाएं तो अनुच्छेद 201 में कहा गया है कि अगर राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेजना चाहते हैं तो वो ऐसा कर सकते हैं। 
राज्यपाल के पास धन विधेयक को छोड़ कर बाकी विधेयकों पर वीटो पॉवर है लेकिन पॉकेट या जेबी वीटो का अधिकार नहीं है। ये सिर्फ राष्ट्रपति के पास है। अगर राष्टपति चाहें तो किसी राज्य के राज्यपाल से आए विधेयक पर पॉकेट वीटो लगा सकते हैं। खुद राज्यपाल नहीं लगा सकते। इसके बावजूद ऐसा हो रहा है। 20 मार्च को तेलंगाना सरकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होने वाली है। राज्य सरकार का कहना है कि राज्यपाल तमिलसाई सौंदराजन ने कम से कम 10 विधेयकों को लटकाया हुआ है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई वाली पीठ अब इस पर सुनवाई करेगी। इसी की साथ पहली बार संविधान के अनुच्छेद 163 (2) का भी टेस्ट होगा। इसके मुताबिक राज्यपाल के विवेकाधिकार से लिए गए किसी फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती और उनका फैसला अंतिम माना जाएगा। तो राज्यपाल की भूमिका की समीक्षा भी तो होना चाहिए। और, यह भी देखना होगा कि क्या किसी के पास असीमित अधिकार हो सकते हैं और क्या उनका किसी राजनीतिक हित में दुरुपयोग किया जा सकता है? 

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